hamko kalandar kahaa gaya
:ग़ज़ल संख्या 1 : इक बंजारा करता क्या... धूप का जंगल, नंगे पावों इक बंजारा करता क्या रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे, हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है तेरा-मेरा, इसका-उसका, फिर बंटवारा करता क्या टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये बींच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या :ग़ज़ल संख्या 2 : जिंदा रहे तो हमको कलंदर कहा गया... ज़िन्दा रहे तो हमको क़लन्दर कहा गया सूली पे चढ़ गये तो पयम्बर कहा गया ऐसा हमारे दौर में अक्सर कहा गया पत्थर को मोम, मोम को पत्थर कहा गया ख़ुद अपनी पीठ ठोंक ली कुछ मिल गया अगर जब कुछ नहीं मिला तो मुक़द्दर कहा गया वैसे तो ये भी आम मकानों की तरह था तुम साथ हो लिये तो इसे घर कहा गया जिस रोज़ तेरी आँख ज़रा डबडबा गयी क़तरे को उसी दिन से समन्दर कहा गया जो रात छोड़ दिन में...