aks samastipuri at hirdu kavyashala

आज मिलते हैं एक ऐसे मशहूर शायर से जिसकी उम्र देखकर बड़े - बड़े शायर दांतों तले उँगलियाँ दबा लिया करते हैं... जी हाँ हम बात कर रहें आपके अपने महबूब शायर जनाब अक्स समस्तीपुरी साहब की... पेश - ए - ख़िदमत है उनकी एक ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल...

कुछ एक रोज़ में मैं चाहतें बदलता हूँ
अगर न सीट मिले तो बसें बदलता हूँ

हर एक रोज़ वो पहचान कैसे लेती है,
हर एक रोज़ तो मैं आहटें बदलता हूँ

हमेशा तुमको शिकायत रही जमाऊं न हक़,
तो सुन लो आज मैं अपनी हदें बदलता हूँ

कराहती हैं ये बिस्तर की सिलवटें मेरी,
तमाम रात मैं यूँ करवटें बदलता हूँ

ख़ुदा का शुक्र है आदत नहीं बने हो तुम,
कुछ एक रोज़ में मैं आदतें बदलता हूँ

- अक्स समस्तीपुरी

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