banaj kumar banaj at hirdu kavyashala
आज मिलते हैं देश के सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार श्री बनज कुमार ‘बनज’ जी से... आनंद लेते बनज साहब के कुछ दोहों का...
हंस सवारी हाथ में, वीणा की झंकार।
वर दे माँ मैं कर सकूँ, गीतों का शृंगार।।
वर दे माँ मैं कर सकूँ, गीतों का शृंगार।।
भाई चारे से बना, गिरता देख मकान।
राजनीति के आ गई, चेहरे पर मुस्कान।।
राजनीति के आ गई, चेहरे पर मुस्कान।।
अब पानी इस गाँव का, नहीं रहा वाचाल।।
करता हूँ बाहर इसे, रोज़ पकड़ कर हाथ।
घर ले आता है समय, मगर उदासी साथ।।
मरने की फ़ुर्सत मुझे, मत देना भगवान्।
मुझे खोलने हैं कई ,अब भी रोशनदान।।
आज हवा के साथ में, घूम रही थी आग।
वर्ना यूँ जलता नहीं, बस्ती का अनुराग।।
बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव।
देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।।
रंग फूल ख़ुशबू कली, था मेरा परिवार।
जाने कैसे हो गए, शामिल इसमें ख़ार।।
अधर तुम्हारे हो गये, बिना छुए ही लाल।
लिया दिया कुछ भी नहीं, कैसे हुआ कमाल।।
बीच सफ़र से चल दिया ऐसे मेरा ख़्वाब,
आधी पढ़कर छोड़ दे जैसे कोई किताब।।
- बनज कुमार ‘बनज’
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