krishna kumar naaz at hirdu kavyashala

आज रू-ब-रू होते हैं उस शायर से जिसकी ज़बान से निकला हर लफ्ज़ शायरी हो जाता है... हम बात कर रहें हैं देश के बेहद मशहूर – ओ – मारूफ़ शायर जनाब डा. कृष्ण कुमार “नाज़” साहब की... शायरी करना आसान नहीं होता ये तो खून – ए – दिल से लिखी जाने वाली चीज़ है... शायरी समझने के लिए ज़रूरी है नाज़ हुआ जाए... नाज़ साहब की शान में शिवम् शर्मा ‘गुमनाम’ के चार मिसरे देखें –
हम न होते बज़्म में गर आशिक़ी होती नहीं
ज़िंदगी भी ये हमारी ज़िंदगी होती नहीं।।
जां गले तक आ ही जाती है ग़ज़ल कहते हुए,
इतनी भी आसान शेरो – शायरी होती नहीं।।
- शिवम् शर्मा ‘गुमनाम’
आइए शायरी को थोड़ा आसान किया जाए शायरी के तमाम महबूबों के नाम नाज़ साहब की एक ग़ज़ल... मगर ज़रा सा इंतज़ार... उससे पहले नाज़ साहब का एक ख़ूबसूरत सा गीत...

डा. कृष्ण कुमार 'नाज़'

गीत
इतना वक़्त कहाँ से लाऊं 
संग तुम्हारे हंसूं हसाऊं 
इतना वक़्त कहाँ से लाऊं... 

दस बजते ही दफ़्तर जाना।
और फ़ाइलों से बतियाना।।
हारे-थके हुए क़दमों से,
शाम ढले घर वापस आना।।
सोचो जरा विवशता मेरी,
मैं तुमको कैसे समझाऊं...

कभी-कभी तो ये होता है।
मैं जगता हूंतन सोता है।।
हंसती हैं मुझ पर इच्छाएं,
और बिचारा मन रोता है।।
रूठ गए जो लोग अकारण,
कैसे जाकर उन्हें मनाऊं...

मैं क्या जानूं सैर-सपाटे।
जीवनभर ढोए सन्नाटे।।
क्या बतलाऊं कैसे-कैसे,
मौसम मैंने कैसे काटे।।
चाबी भरे खिलौनों से मैं,
कब तक अपना मन बहलाऊं...

सुख ने जब-जब की मनमानी।
दुख ने अपनी चादर तानी।।
पीड़ा के छविगृह में उभरीं,
छवियां कुछ जानी-पहचानी।।
मेरे पास नहीं कुछ ऐसा,
जिस पर पलभर भी इतराऊं...

ग़ज़ल
क्या हुआ तुमको अगर चेहरे बदलना आ गया।
हमको भी हालात के साँचें में ढलना आ गया।।

रौशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर,
ली नसीहत मोम ने, उसको पिघलना आ गया।।

शुक्रिया ए पत्थरों! बेहद तुम्हारा शुक्रिया,
सर झुकाकर जो मुझे रस्ते पे चलना आ गया।।

सरफिरी आँधी का थोड़ा सा सहारा क्या मिला,
धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया।।

बिछ गए फिर ख़ुद-बख़ुद रस्तों में कितने ही गुलाब,
जब हमें काँटों पे नंगे पाँव चलना आ गया।।

चाँद को छूने की कोशिश में तो नाकामी मिली,
हाँ, मगर नादान बच्चे को छलना आ गया।।

नींद की ख़्वाबों से दूरी बढ़ गई तो ये हुआ,
ख्व़ाब को पलकों के आँगन में टहलना आ गया।।

पहले बचपन, फिर जवानी, फिर बुढ़ापे के निशान,
उम्र को भी देखिये कपड़े बदलना आ गया।।
- डा. कृष्ण कुमार ‘नाज़’

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