Dilshad zakhmi at hirdu kavyashala

ग़ज़ल 1:
कि ज़ालिम पे जब से शबाब आ गया है।
तो चेहरे पे उसके नक़ाब आ गया है।।
कोई डाकिया जब भी आया गली में,
मैं समझा कि ख़त का जबाब आ गया है।।
मेरी राह में जिसने काँटें बिछाए,
वही आज लेकर गुलाब आ गया है।।
अचानक ये महफ़िल हुई कैसे रौशन,
कोई बज़्म में बेहिजाब आ गया है।।
मुझे देख के मुस्कुरा कर वो बोले,
ये ज़ख़्मी क्यूँ खानाखराब आ गया है।।

ग़ज़ल 2:
क्या मिला है हमें प्यार कर के।
हम इधर के रहे न उधर के।।
आज फिर प्यार से उसने देखा,
जाऊँ क़ुर्बान मैं उस नज़र के।।
रोज़ पीते थे मैख़ाने जा कर,
हैं मुरीद अब तो साक़ी के दर के।।
तुमने ज़ख़्मी को ज़ख़्मी किया है,
टुकड़े टुकड़े किए हैं जिगर के।।
- दिलशाद ज़ख़्मी

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