Magar paikar hoon main ilmon hunar ka
ग़ज़ल: डा. कृष्ण कुमार नाज़ साहब
मुसाफ़िर हूँ इक अनजानी डगर का।
कुछ अंदाज़ा नहीं होता सफर का।।
मिरे ख़्वाबों मेरी नींदें सजा दो,
कि मैं जागा हुआ हूँ उम्र भर का।।
हैं मुझमें खामियाँ यूँ तो बहुत सी,
मगर पैकर हूँ मैं इल्मों-हुनर का।।
मुझे रख लो पनाहों में तुम अपनी,
भरोसा क्या भला दीवारो-दर का।।
सुनों मुझसे अंधेरों की कहानी,
दिया हूँ रात के पिछले पहर का।।
वो जिसने ज़िंदगी भर छाँव बांटी,
मैं पत्ता हूँ उसी बूढ़े शज़र का।।
न जाने कौन मेरा मुंतज़िर है,
बुलावा है मुझे आठों पहर का।।
बना बैठे उसी को देवता हम,
जो पत्थर था हमारी रहगुज़र का।।
- डा. कृष्ण कुमार नाज़
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बहुत-बहुत धन्यवाद शिवम हार्दिक आभार
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