Munavvar rana at hirdu kavyashala

ग़ज़ल: मुनव्वर राणा
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ।
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ।।
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर,
ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ।।
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें,
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ।।
चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन,
क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ।।
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं,
शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ।।
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती,
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ।।

राणा साहब के कुछ शेर माँ पर...
मामूली एक कलम से कहाँ तक घसीट लाए।
हम ग़ज़ल को कोठे से माँ तक घसीट लाए।।

चलती - फिरती हुई आँखों में अजाँ देखी है।
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है।।

तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक।
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी।।

बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ।
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान छुआ।।

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता।
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है।।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है।
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है।।

'मुनव्वर' माँ के आगे कभी खुलकर नहीं रोना।
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती।।

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आयी।
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी।।

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू।
मुद्दतों नहीं धोया माँ ने दुपट्टा अपना।।

हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते।
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते।।

हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं।
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं।।

हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह।
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह।।

सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’।
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते।।

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं।
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं।।

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती।
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।।

तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर।
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा।।
- मुनव्वर राणा

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