Waseem barelvi at hirdu kavyashala
ग़ज़ल: प्रो. वसीम बरेलवी, अंतर्राष्ट्रीय शायर
ग़ज़ल : दुनिया का सारा नशा उतरता चला गया...
दरिया का सारा नशा उतरता चला गया।
मुझको डुबोया और मैं उभरता चला गया।।
वो पैरवी तो झूट की करता चला गया।
लेकिन बस उसका चेहरा उतरता चला गया।।
हर सांस उम्रभर किसी मरहम से कम न थी,
मैं जैसे कोई ज़ख्म था भरता चला गया।।
मंज़िल समझ के बैठ गए जिनको चंद लोग,
मैं ऐसे रास्तों से गुजरता चला गया।।
हद से बढ़ी उड़ान की ख़्वाहिश तो यूँ लगा,
जैसे कोई परों को कतरता चला गया।।
दुनिया समझ मे आयी मगर आयी देर से,
कच्चा बहुत था रंग उतरता चला गया।।
ग़ज़ल: आते आते मेरा नाम से रह गया...
आपको देख कर देखता रह गया।
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।।
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया।
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया।।
वो मेरे सामने ही गया और मैं,
रास्ते की तरह देखता रह गया।।
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।।
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे,
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया।।
- प्रो. ज़ाहिद हसन उर्फ़ वसीम बरेलवी
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