Ansar qumabri

:मुक़्तक:
तू मान या न मान घड़ी दो घड़ी का है।
ये जिस्म का मकान घड़ी दो घड़ी का है।।
दो चार मिले हैं इन्हें प्रेम से जियो,
ये हिन्दू मुसलमान घड़ी दो घड़ी का है।।
:ग़ज़ल:1:
तू अगर बेवफ़ा नहीं होता।
फिर मेरे पास क्या नहीं होता।।
जब से देखा है तेरी आँखों को,
मुझको कोई नशा नहीं होता।।
हम अगर आईना छिपा लेते,
कोई पत्थर चला नहीं होता।।
खून से गर न  सींचते  गुलशन,
कोई पत्ता हरा नहीं होता।।
‘क़म्बरी’ तुम अगर नहीं होते,
शायरी का मज़ा नहीं होता।।
:ग़ज़ल:2:
शायर हूँ कोई ताज़ा ग़ज़ल सोच रहा हूँ
फुटपाथ प बैठा हूँ महल सोच रहा हूँ।।
मस्जिद में पुजारी हो तो मंदिर में नमाज़ी,
हो किस तरह ये फेर-बदल सोच रहा हूँ।।
कहते हैं सभी लोग कि लाएँगे इन्कलाब,
लेकिन करेगा कौन पहल सोच रहा हूँ।।
उस फूल से बदन को कहूँ क्या मैं बताओ,
जूही, गुलाब, बेला, कमल सोच रहा हूँ।।
- डा. अंसार क़म्बरी

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