Judaai ki ghadi ho jaise
ग़ज़ल:
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे।
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे।।
अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ।।
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे।।
मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं,
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे।।
तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर,
यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे।।
कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे,
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे।।
आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं "फ़राज़",
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।।
- अहमद फ़राज़
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