Ekadashi tripathi at hirdu kavyashala

आज आप के बीच हैं युवा कवयित्री कु. एकादशी त्रिपाठी जी... आज पढ़ते हैं एकादशी जी की एक बेहद मार्मिक कविता "हाँ! मैं कोठे वाली हूँ"... हर सिक्के के दो पहलूँ होते हैं... आज हम समझने की कोशिश करते हैं नारी के इस रूप को भी... जिसे समाज कभी अच्छी निगाहों से नहीं देखता... एकादशी त्रिपाठी हाँ! मैं कोठे वाली हूँ... अरे हाँ! मैं कोठे वाली हूँ... दिन-रात खुद का जिस्म बेचकर बेबाप औलादों को पालने वाली हूँ... नाजायज हूं दुनिया के लिए हराम के बच्चों वाली कहलाती है हाँ! मैं कोठे वाली हूँ... अपने होठों को मांस सा रंगाती हूँ आँखों में बेशर्मी भर सुरमा मैं लगाती हूँ हर रात रईसों के खातिर बिस्तर मैं सजाती हूँ सुबह तक रईसों का एक एक रुपया चुकता कराती हूँ पहले कोठे वाली नहीं थी पर हां अब कोठेवाली कहलाती हूँ सात अाठ वर्ष की कुल थी मैं उसका कातिल रात का जाना पहचाना चेहरा मुझसे कुछ भी लिपट रहा था मासूम थी ...नादान थी... बलात्कार हो रहा है मेरा इस सच से अनजान थी चीख रही थी ...चिल्ला रही थी ... दुनिया सारी तमाशाबीन बन मजाक उड़ा रही थी बोटी बोटी नोच रहा था सीना मेरा खोज रहा था...